सहीफ़ा कामेलह - ईमाम ज़ैन अल'आबेदीन (अ:स) की दुआओँ का सहीफ़ा﴿

दुआ 46 - जुमा और ईदों के दिन की दुआ 

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शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान और निहायत रहम वाला है 

बिस्मिल्लाह अर'रहमान अर'रहीम 

بِسْمِ اللهِ الرَحْمنِ الرَحیمْ

ऐ वह जो ऐसे शख़्स पर रहम करता है जिस पर बन्दे रहम नहीं करते। ऐ वह जो ऐसे (गुनहगार) को क़ुबूल करता है जिसे कोई क़ितअए ज़मीन (उसके गुनाहों के बाएस) क़ुबूल नहीं करता। ऐ वह जो अपने हाजतमन्द को हक़ीर नहीं समझता। ऐ वह जो गिड़गिड़ाने वालों को नाकाम नहीं फेरता। ऐ वह जो नाज़िश बेजा करने वालों को ठुकराता नहीं। ऐ वह जो छोटे से छोटे तोहफ़े को भी पसन्दीदगी की नज़रों से देखता है और जो मामूली से मामूली अमल उसके लिये बजा लाया गया हो उसकी जज़ा देता है। ऐ वह जो इससे क़रीब हो वह उससे क़रीब होता है। ऐ वह के जो इससे रूगर्दानी करे उसे अपनी तरफ़ बुलाता है। और वह जो नेमत को बदलता नहीं और न सज़ा देने में जल्दी करता है। ऐ वह जो नेकी के नेहाल को बारआवर करता है ताके उसे बढ़ा दे और गुनाहों से दरगुज़र करता है ताके उन्हें नापैद कर दे। उम्मीदें तेरी सरहदे करम को छूने से पहले कामरान होकर पलट आएं और तलब व आरज़ू के मसाग़ेर तेरे फ़ैज़ाने जूद से छलक उठे और सिफ़तें तेरे कमाले ज़ात की मन्ज़िल तक पहुंचने से दरमान्दा होकर मुन्तशिर हो गईं इसलिये के बलन्दतरीन रफ़अत जो हर कंगरह बलन्द से बालातर है, और बुज़ुर्गतरीन अज़मत जो हर अज़मत से बलन्दतर है, तेरे लिये मख़सूस है। हर बुज़ुर्ग तेरी बुज़ुर्गी के सामने छोटा और हर ज़ीशरफ़ तेरे शरफ़ के मुक़ाबले में हक़ीर है। जिन्होंने तेरे ग़ैर का रूख़ किया वह नाकाम हुए। जिन्होंने तेरे सिवा दूसरों से तलब किया वह नुक़सान में रहे, जिन्होंने तेरे सिवा दूसरों के हाँ मन्ज़िल की वह तबाह हुए। जो तेरे फ़ज़्ल के बजाए दूसरों से रिज़्क़ व नेमत के तलबगार हुए वह क़हत व मुसीबत से दो-चार हुए तेरा दरवाज़ा तलबगारों के लिये वा है और तेरा जूद व करम साएलों के लिये आम है। तेरी फ़रयादरसी दादख़्वाहों से नज़दीक है। उम्मीदवार तुझसे महरूम नहीं रहते और तलबगार तेरी अता व बख़्शिश से मायूस नहीं होते, और मग़फ़ेरत चाहने वाले पर तेरे अज़ाब की बदबख़्ती नहीं आती। तेरा ख़्वाने नेमत उनके लिये भी बिछा हुआ है जो तेरी नाफ़रमानी करते हैं। और तेरी बुर्दबारी उनके भी आड़े आती है जो तुझसे दुश्मनी रखते हैं। बुरों से नेकी करना तेरी रोश और सरकशों पर मेहरबानी करना तेरा तरीक़ा है। यहां तक के नर्मी व हिल्म ने उन्हें (हक़ की तरफ़) रूजू होने से ग़ाफ़िल कर दिया और तेरी दी हुई मोहलत ने उन्हें इज्तेनाब मआसी से रोक दिया। हालांके तूने उनसे नर्मी इसलिये की थी के वह तेरे फ़रमान की तरफ़ पलट आएं और मोहलत इसलिये दी थी के तुझे अपने तसल्लुत व इक़्तेदार के दवाम पर एतमाद था (के जब चाहे उन्हें अपनी गिरफ़्त में ले सकता है) अब जो ख़ुश नसीब था उसका ख़ात्मा भी ख़ुश नसीबी पर किया और जो बदनसीब था, उसे नाकाम रखा। (वह ख़ुशनसीब हूँ या बदनसीब) सबके सब तेरे हुक्म की तरफ़ पलटने वाले हैं और उनका माल तेरे अम्र से वाबस्ता है। उनकी तवील मुद्दते मोहलत से तेरी दलील हुज्जत में कमज़ोरी रूनुमा नहीं होती (जैसे उस शख़्स की दलील कमज़ोर हो जाती है जो अपने हक़ के हासिल करने में ताख़ीर करे) और फ़ौरी गिरफ़्त को नज़रअन्दाज़ करने से तेरी हुज्जत व बुरहान बातिल नहीं क़रार पाई (के यह कहा जाए के अगर उसके पास उनके खि़लाफ़ दलील व बुरहान होती तो वह मोहलत क्यों देता) तेरी हुज्जत बरक़रार है जो बातिल नहीं हो सकती, और तेरी दलील मोहकम है जो ज़ाएल नहीं हो सकती। लेहाज़ा दाएमी हसरत व अन्दोह उसी शख़्स के लिये है जो तुझसे रूगर्दां हुआ और रूसवाकुन नामुरादी उसके लिये है जो तेरे हां से महरूम रहा और बदतरीन बदबख़्ती उसी के लिये है जिसने तेरी (चश्मपोशी से) फ़रेब खाया। ऐसा शख़्स किस क़द्र तेरे अज़ाब में उलटे-पलटे खाता और कितना तवील ज़माना तेरे एक़ाब में गर्दिश करता रहेगा और उसकी रेहाई का मरहला कितनी दूर और बा-आसानी निजात हासिल करने से कितना मायूस होगा। यह तेरा फ़ैसला अज़रूए अद्ल है जिसमें ज़रा भी ज़ुल्म नहीं करता। और तेरा यह हुक्म मबनी बर इन्साफ़ है जिसमें इस पर ज़्यादती नहीं करता। इसलिये के तूने पै दरपै दलीलें क़ायम और क़ाबिले क़ुबूल हुज्जतें आश्कारा कर दी हैं और पहले से डराने वाली चीज़ों के ज़रिये आगाह कर दिया है और लुत्फ़ व मेहरबानी से (आख़ेरत की) तरग़ीब दिलाई है और तरह-तरह की मिसालें बयान की हैं। मोहलत की मुद्दत बढ़ा दी है और (अज़ाब में) ताख़ीर से काम लिया है। हालांके तू फ़ौरी गिरफ़्त पर इख़्तियार रखता था और नर्मी व मुदारात से काम लिया है। बावजूद यके तू ताजील करने पर क़ादिर था, यह नर्मरवी, आजिज़ी की बिना पर और मोहलत देही कमज़ोरी की वजह से न थी और न अज़ाब में तौक़फ़ करना ग़फ़लत व बेख़बरी के बाएस और न ताख़ीर करना नर्मी व मुलातेफ़त की बिना पर था। बल्कि यह इसलिये था के तेरी हुज्जत हर तरह से पूरी हो। तेरा करम कामिलतर, तेरा एहसान फ़रावां और तेरी नेमत तमामतर हो। यह तमाम चीज़ें थीं और रहेंगी दरआँ हालिया के तू हमेशा से है और हमेशा रहेगा। तेरी हुज्जत इससे बालातर है के इसके तमाम गोशों को पूरी तरह बयान किया जा सके और तेरी इज़्ज़त व बुज़ुर्गी इससे बलन्दतर है के इसकी कुन्ह व हक़ीक़त की हदें क़ायम की जाएं और तेरी नेमतें इससे फ़ज़ोंतर है के इन सबका शुमार हो सके और तेरे एहसानात इससे कहीं ज़्यादातर हैं के उनमें अदना एहसान पर भी तेरा शुक्रिया अदा किया जा सके। (मैं तेरी हम्द व सिपास से आजिज़ और दरमान्दा हूँ, गोया) ख़ामोशी ने तेरी पै दर पै हम्द व सिपास से मुझे नातवां कर दिया है और क़ौक़फ़ ने तेरी तमजीद व सताइश से मुझे गंग कर दिया है और इस सिलसिले में मेरी तवानाई की हद यह है के अपनी दरमान्दगी का एतराफ़ करूं यह बे रग़बती की वजह से नहीं है। ऐ मेरे माबूद! बल्कि अज्ज़ व नातवानी की बिना पर है। अच्छा तो मैं अब तेरी बारगाह में हाज़िर होने का क़स्द करता हूं और तुझसे हुस्ने एआनत का ख़्वास्तगार हूं। तू मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मेरी राज़ व नियाज़ की बातों को सुन और मेरी दुआ को शरफ़े क़ुबूलियत बख़्श और मेरे दिन को नाकामी के साथ ख़त्म न कर और मेरे सवाल में मुझे ठुकरा न दे, और अपनी बारगाह से पलटने और फिर पलटकर आने को इज़्ज़त व एहतेराम से हमकिनार फ़रमा। इसलिये के तुझे तेरे इरादे में कोई दुश्वारी हाएल नहीं होती और जो चीज़ तुझ से तलब की जाए उसके देने से आजिज़ नहीं होता, और तू हर चीज़ पर क़ादिर है और क़ूवत व ताक़त नहीं सिवा अल्लाह के सहारे के जो बलन्द मरतबा व अज़ीम है।

 

يَا مَنْ يَرْحَمُ مَنْ لا يَرْحَمُهُ الْعِبَادُ. وَيَا مَنْ يَقْبَلُ مَنْ لا تَقْبَلُهُ الْبِلاَدُ. وَيَا مَن لاَ يَحْتَقِرُ أَهْلَ الْحَاجَةِ إلَيْهِ. وَيَا مَنْ لا يُخَيِّبُ المَلِحِّيْنَ عَلَيْـهِ، وَيَا مَنْ لاَ يَجْبَهُ بِالرَّدِّ أَهْلَ الدَّالَّةِ عَليهِ، وَيَا مَنْ يَجْتَبِي صَغِيرَ مَايُتْحَفُ بِهِ،وَيَشْكُرُ يَسِيرَ مَا يُعْمَلُ لَهُ. وَيَامَنْ يَشْكُرُ عَلَى الْقَلِيْلِ، وَيُجَازيْ بِالْجَلِيلِ،وَيَا مَنْ يَدْنُو إلَى مَنْ دَنا   مِنْهُ وَيَا مَنْ يَدعُو إلَى نَفْسِهِ مَنْ أَدْبَرَ عَنْهُ، وَيَا مَنْ لا يُغَيِّرُ النِّعْمَةَ، وَلا يُبَادِرُ بِالنَّقِمَةِ،وَيَا مَنْ يُثْمِرُ الْحَسَنَةَ حَتَّى يُنْمِيَهَا، وَيَتَجَاوَزُ عَنِ السَّيِّئَةِ حَتَّى يُعَفِّيَهَا. انْصَرَفَتِ الآمَالُ دُونَ مَدى كَرَمِكَ بِالحَاجَاتِ وَامْتَلاَتْ بِفَيْضِ جُودِكَ أَوْعِيَةُ الطَّلِبات، وَتَفَسَّخَتْ دُونَ بُلُوغِ نَعْتِـكَ الصِّفَاتُ، فَلَكَ الْعُلُوُّ الأعْلَى فَوْقَ كُلِّ عَال، وَالْجَلاَلُ الأمْجَدُ فَوْقَ كُلِّ جَلاَل، كُلُّ جَلِيْل عِنْدَكَ صَغِيرٌ، وَكُلُّ شَرِيف فِي جَنْبِ شَرَفِكَ حَقِيرٌ، خَابَ الْوَافِدُونَ عَلَى غَيْرِكَ، وَخَسِرَ الْمُتَعَرِّضُونَ إلاَّ لَكَ، وَضَاعَ الْمُلِمُّونَ إلاّ بِكَ، وَأَجْدَبَ الْمُنْتَجِعُـونَ إلاَّ مَنِ انْتَجَعَ فَضْلَكَ، بَابُكَ مَفْتُوحٌ لِلرَّاغِبِينَ، وَجُودُكَ مُبَاحٌ لِلسَّائِلِينَ، وَإغاثَتُكَ قَرِيبَةٌ مِنَ الْمُسْتَغِيْثِينَ، لاَ يَخِيبُ مِنْـكَ الآمِلُونَ، وَلاَ يَيْأَسُ مِنْ عَطَائِكَ الْمُتَعَرِّضُونَ، وَلا يَشْقَى بِنَقْمَتِكَ الْمُسْتَغْفِرُونَ. رِزْقُكَ مَبْسُوطٌ لِمَنْ عَصَاكَ، وَحِلْمُكَ مُعْتَـرِضٌ لِمَنْ نَاوَاكَ،عَادَتُكَ الإحْسَـانُ إلَى الْمُسِيئينَ، وَسُنَّتُـكَ الإبْقَاءُ عَلَى الْمُعْتَدِينَ حَتَّى لَقَدْ غَرَّتْهُمْ أَنَاتُكَ عَنِ الرُّجُوعِ، وَصَدَّهُمْ إمْهَالُكَ عَن النُّزُوعِ. وَإنَّمَا تَأَنَّيْتَ بهمْ لِيَفِيئُوا إلَى أَمْرِكَ، وَأَمْهَلْتَهُمْ ثِقَةً بِدَوَامِ مُلْكِكَ، فَمَنْ كَانَ مِنْ أَهْلِ السَّعَادَةِ خَتَمْتَ لَهُ بِهَا، وَمَنْ كَانَ مِنْ أَهْلِ الشَّقَاوَةِ خَذَلْتَهُ لَهَا، كُلُّهُمْ صَائِرُونَ إلَى حُكْمِكَ وَأُمُورُهُمْ آئِلَةٌ إلَى أَمْـرِكَ، لَمْ يَهِنْ عَلَى طُـولِ مُـدَّتِهِمْ سُلْطَانُـكَ وَلَمْ يَـدْحَضْ لِتَـرْكِ مُعَاجَلَتِهِمْ بُرْهَانُكَ. حُجَّتُكَ قَائِمَةٌ لاَ تُدْحَضُ، وَسُلْطَانُكَ ثَابِتٌ لا يَزُولُ، فَالْوَيْلُ الدَّائِمُ لِمَنْ جَنَحَ عَنْكَ، وَالْخَيْبَةُ الْخَاذِلَةُ لِمَنْ خَابَ مِنْكَ، وَالشَّقاءُ الاشْقَى لِمَنِ اغْتَرَّ بِكَ. مَا أكْثَرَ تَصَرُّفَهُ فِي عَذَابِكَ، وَمَا أَطْوَلَ تَرَدُّدَهُ فِيْ عِقَابِكَ، وَمَا أَبْعَدَ غَايَتَهُ مِنَ الْفَرَجِ، وَمَا أَقْنَطَهُ مِنْ سُهُولَةِ الْمَخْرَجِ عَدْلاً مِنْ قَضَائِكَ لاَ تَجُورُ فِيهِ، وَإنْصَافاً مِنْ حُكْمِكَ لاَ تَحِيفُ عَلَيْهِ، فَقَدْ ظَاهَرْتَ الْحُجَجَ، وَأَبْلَيْتَ الاعْذَارَ، وَقَـدْ تَقَدَّمْتَ بِـالْوَعِيْـدِ وَتَلَطَّفْتَ فِي التَّرْغِيْبِ، وَضَرَبْتَ الامْثَالَ، وَأَطَلْتَ الاِمْهَالَ، وَأَخَّرْتَ وَأَنْتَ مُسْتَطِيعٌ لِلْمُعَاجَلَةِ، وَتَأَنَّيْتَ وَأَنْتَ مَليءٌ بِالْمُبَادَرَةِ، لَمْ تَكُنْ أَنَاتُكَ عَجْزاً، وَلا إمْهَالُكَ وَهْناً، وَلاَ إمْسَاكُكَ غَفْلَةً، وَلاَ انْتِظَارُكَ مُدَارَاةً، بَلْ لِتَكُونَ حُجَّتُكَ أَبْلَغَ، وَكَرَمُكَ أكمَلَ، وَإحْسَانُكَ أَوْفَى وَنِعْمَتُكَ أَتَمَّ، كُلُّ ذلِكَ كَانَ وَلَمْ تَزَلْ، وَهُوَ كائِنٌ وَلاَ تَزَالُ ، حُجَّتُكَ أَجَلُّ مِنْ أَنْ توصَفَ بِكُلِّهَا، وَمَجْدُكَ أَرْفَـعُ مِنْ أَنْ يُحَدَّ بِكُنْهِهِ، وَنِعْمَتُكَ أكْثَرُ مِنْ أَنْ تُحْصَى بِأَسْرِهَا، وَإحْسَانُكَ أكْثَرُ مِنْ أَنْ تُشْكَرَ عَلَى أَقَلِّهِ، وَقَدْ قَصَّرَ بِيَ السُّكُوتُ عَنْ تَحْمِيدِكَ، وَفَهَّهَنِي الإمْسَاكُ عَنْ تَمْجيدِكَ، وَقُصَارَايَ الإقْرَارُ بِالْحُسُورِ لاَ رَغْبَةً ـ يا إلهِي ـ بَلْ عَجْزاً، فَهَا أَنَا ذَا أَؤُمُّكَ بِالْوِفَادَةِ، وَأَسأَلُكَ حُسْنَ الرِّفَادَةِ، فَصلِّ عَلَى مُحَمَّد وَآلِـهِ وَاسْمَعْ نَجْوَايَ، وَاسْتَجِبْ دُعَائِي وَلاَ تَخْتِمْ يَوْمِيَ بِخَيْبَتِي، وَلاَ تَجْبَهْنِي بِالرَّدِّ فِي مَسْأَلَتِي، وَأكْرِمْ مِنْ عِنْدِكَ مُنْصَرَفِي وَإلَيْكَ مُنْقَلَبِي، إنَّكَ غَيْرُ ضَائِق بِمَا تُرِيْدُ وَلاَ عَاجِزٍ عَمَّا تُسْأَلُ، وَأَنْتَ عَلَى كُلِّ شَيْء قَدِيْرٌ، وَلا حَوْلَ وَلا قُوَّةَ إلاَّ بِاللهِ الْعَلِيِّ الْعَظِيمِ

 

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