सहीफ़ा कामेलह - ईमाम ज़ैन अल'आबेदीन (अ:स) की दुआओँ का सहीफ़ा﴿

दुआ 45 - रमज़ान महीने की विदाई के वक़्त की दुआ

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शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान और निहायत रहम वाला है 

बिस्मिल्लाह अर'रहमान अर'रहीम 

بِسْمِ اللهِ الرَحْمنِ الرَحیمْ

ऐ अल्लाह! ऐ वह जो (अपने एहसानात) का बदला नहीं चाहता। ऐ वह जो अता व बख़्शिश पर पशेमान नहीं होता। ऐ वह जो अपने बन्दों को (उनके अमल के मुक़ाबले में) नपा तुला अज्र नहीं देता। तेरी नेमतें बग़ैर किसी साबेक़ा इस्तेहक़ाक़ के हैं और तेरा अफ़ो व दरगुज़र तफ़ज़्ज़ुल व एहसान है। तेरा सज़ा देना ऐने अद्ल और तेरा फ़ैसला ख़ैर व बहबूदी का हामिल है। तू अगर देता है तो अपनी अता को मन्नत गुज़ारी से आलूदा नहीं करता और अगर मना कर देता है तो यह ज़ुल्म व ज़्यादती की बिना पर नहीं होता। जो तेरा षुक्र अदा करता है तू उसके षुक्र की जज़ा देता है। हालांके तू ही ने उसके दिल में शुक्रगुज़ारी का अलक़ा किया है और जो तेरी हम्द करता है उसे बदला देता है। हालांके तू ही ने उसे हम्द की तालीम दी है और ऐसे शख़्स की पर्दापोशी करता है के अगर चाहता तो उसे रूसवा कर देता, और ऐसे शख़्स को देता है के अगर चाहता तो उसे न देता। हालांके वह दोनों तेरी बारगाहे अदालत में रूसवा व महरूम किये जाने ही के क़ाबिल थे मगर तूने अपने अफ़आल की बुनियाद व तफ़ज़्ज़ुल व एहसान पर रखी है और अपने इक़्तेदार को अफ़ो व दरगुज़र की राह पर लगाया है। और जिस किसी ने तेरी नाफ़रमानी की तूने उससे बुर्दबारी का रवैया इख़्तेयार किया। और जिस किसी ने अपने नफ़्स पर ज़ुल्म का इरादा किया तूने उसे मोहलत दी, तू उनके रूजूअ होने तक अपने हिल्म की बिना पर मोहलत देता है और तौबा करने तक उन्हें सज़ा देने में जल्दी नहीं करता ताके तेरी मन्शा के खि़लाफ़ तबाह होने वाला तबाह न हो और तेरी नेमत की वजह से बदबख़्त होने वाला बदबख़्त न हो मगर उस वक़्त के जब उस पर पूरी उज़्रदारी और एतमामे हुज्जत हो जाए। ऐ करीम! यह (एतमामे हुज्जत) तेरे अफ़ो व दरगुज़र का करम और ऐ बुर्दबार तेरी शफ़क़्क़त व मेहरबानी का फ़ैज़ है तू ही है वह जिसने अपने बन्दों के लिये अफ़ो व बख़्शिश का दरवाज़ा खोला है और उसका नाम तौबा रखा है और तूने इस दरवाज़े की निशानदेही के लिये अपनी वही को रहबर क़रार दिया है ताके वह उस दरवाज़े से भटक न जाएं। चुनांचे ऐ मुबारक नाम वाले तूने फ़रमाया है के ख़ुदा की बारगाह में सच्चे दिल से तौबा करो। उम्मीद है के तुम्हारा परवरदिगार तुम्हारे गुनाहों को महो कर दे और तुम्हें उस बेहिश्त में दाखि़ल करे जिसके (मोहल्लात व बाग़ात के) नीचे नहरें बहती हैं। उस दिन जब ख़ुदा अपने रसूल स0 और उन लोगों को जो उस पर ईमान लाए हैं रूसवा नहीं करेगा बल्कि उनका नूर उनके आगे आगे और उनकी दाई जानिब चलता होगा और वह लोग यह कहते होंगे के ऐ हमारे परवरदिगार! हमारे लिये हमारे नूर को कामिल फ़रमा और हमें बख़्श दें इसलिये के तू हर चीज़ पर क़ादिर है। तो अब जो इस घर में दाखि़ल होने से ग़फ़लत करे जबके दरवाज़ा खोला और रहबर मुक़र्रर किया जा चुका है तो इसका उज्ऱ व बहाना क्या हो सकता है? तू वह है जिसने अपने बन्दों के लिये लेन देन में ऊंचे नरख़ों का ज़िम्मा ले लिया है और यह चाहा है के वह जो सौदा तुझसे करें उसमें उन्हें नफ़ा हो और तेरी तरफ़ बढ़ने और ज़्यादा हासिल करने में कामयाब हों। चुनांचे तूने के जो मुबारक नाम वाला और बलन्द मक़ाम वाला है। फ़रमाया है- ‘‘जो मेरे पास नेकी लेकर आएगा उसे उसका दस गुना अज्र मिलेगा और जो बुराई का मुरतकिब होगा तो उसको बुराई का बदला बस उतना ही मिलेगा जितनी बुराई है।’’ और तेरा इरशाद है के ‘‘जो लोग अल्लाह तआला की राह में अपना माल ख़र्च करते हैं उनकी मिसाल उस बीज की सी है जिससे सात बालियां निकलें और हर बाली में सौ सौ दाने हों और ख़ुदा जिसके लिये चाहता है दुगना कर देता है’’ और तेरा इरशाद है के - कौन है जो अल्लाह तआला को क़र्ज़े हसना दे ताके ख़ुदा उसके माल को कई गुना ज़्यादा करके अदा करे’’ और ऐसी ही अफ़ज़ाइश इसनात के वादे पर मुश्तमिल दूसरी आयतें के जो तूने क़ुरान मजीद में नाज़िल की हैं और तू ही वह है जिसने वही व ग़ैब के कलाम और ऐसी तरग़ीब के ज़रिये के जो उनके फ़ायदे पर मुश्तमिल है ऐसे उमूर की तरफ़ उनकी रहनुमाई की के अगर उनसे पोशीदा रखता तो न उनकी आंखें देख सकतीं न उनके कान सुन सकते और न उनके तसव्वुरात वहां तक पहुंच सकते। चुनांचे तेरा इरशाद है के तुम मुझे याद रखो मैं भी तुम्हारी तरफ़ से ग़ाफ़िल नहीं होंगा और मेरा शुक्र अदा करते रहो और नाशुक्री न करो। और तेरा इरशाद है के ‘‘अगर नाशुक्री की तो याद रखो के मेरा अज़ाब सख़्त अज़ाब है’’ और तेरा इरशाद है के ‘‘मुझसे दुआ मांगो तो मैं क़ुबूल करूंगा, वह लोग जो ग़ुरूर की बिना पर मेरी इबादत से मुंह मोड़ लेते हैं वह अनक़रीब ज़लील होकर जहन्नुम में दाखि़ल होंगे।’’ चुनांचे तूने दुआ का नाम इबादत रखा और उसके तर्क को ग़ुरूर से ताबीर किया और उसके तर्क पर जहन्नुम में ज़लील होकर दाखि़ल होने से डराया। इसलिये उन्होंने तेरी नेमतों की वजह से तुझे याद किया। तेरे फ़ज़्ल व करम की बिना पर तेरा शुक्रिया अदा किया और तेरे हुक्म से तुझे पुकारा और (नेमतों में) तलबे अफ़ज़ाइश के लिये तेरी राह में सदक़ा दिया और तेरी यह रहनुमाई ही उनके लिये तेरे ग़ज़ब से बचाव और तेरी ख़ुशनूदी तक रसाई की सूरत थी। और जिन बातों की तूने अपनी जानिब से अपने बन्दों की राहनुमाई की है अगर कोई मख़लूक़ अपनी तरफ़ से दूसरे मख़लूक़ की ऐसी ही चीज़ों की तरफ़ राहनुमाई करता तो वह क़ाबिले वहसील होता। तो फिर तेरे ही लिये हम्द व सताइश  है। जब तक तेरी हम्द के लिये राह पैदा होती रहे और जब तक हम्द के वह अल्फ़ाज़ जिनसे तेरी तहमीद की जा सके और हम्द के वह मानी जो तेरी हम्द की तरफ़ पलट सकें बाक़ी रहें। ऐ वह जो अपने फ़ज़्ल व एहसान से बन्दों की हम्द का सज़ावार हुआ है और उन्हें अपनी नेमत व बख़्शिश से ढांप लिया है। हम पर तेरी नेमतें कितनी आशकारा हैं और तेरा इनआम कितना फ़रावां है और किस क़द्र हम तेरे इनआम व एहसान से मख़सूस हैं। तूने उस दीन की जिसे मुन्तखि़ब फ़रमाया और उस तरीक़े की जिसे पसन्द फ़रमाया और उस रास्ते की जिसे आसान कर दिया हमें हिदायत की और अपने हां क़रीब हासिल करने और इज़्ज़त व बुज़ुर्गी तक पहुंचने के लिये बसीरत दी। बारे इलाहा! तूने इन मुन्तख़ब फ़राएज़ और मख़सूस वाजेबात में से माहे रमज़ान को क़रार दिया है। जिसे तूने तमाम महीनों में इम्तियाज़ बख़्श और तमाम वक़्तों और ज़बानों में उसे मुन्तख़ब फ़रमाया है। और इसमें क़ुरान और नूर को नाज़िल फ़रमाकर और ईमान को फ़रोग़ व तरक़्क़ी बख़्श कर उसे साल के तमाम औक़ात पर फ़ज़ीलत दी और इसमें रोज़े वाजिब किये और नमाज़ों की तरग़ीब दी और उसमें शबे क़द्र को बुज़ुर्गी बख़्शी जो ख़ुद हज़ार महीनों से बेहतर है। फिर इस महीने की वजह से तूने हमें तमाम उम्मतों पर तरजीह दी, और दूसरी उम्मतों के बजाए हमें इसकी फ़ज़ीलत के बाएस मुन्तख़ब किया। चुनान्चे हमने तेरे हुक्म से इसके दिनों में रोज़े रखे और तेरी मदद से इसकी रातें इबादत में बसर कीं। इस हालत में के हम इस रोज़ा नमाज़ के ज़रिये तेरी उस रहमत के ख़्वास्तगार थे जिसका दामन तूने हमारे लिये फैलाया है और उसे तेरे अज्र व सवाब का वसीला क़रार दिया और तू हर उस चीज़ के अता करने पर क़ादिर है जिसकी तुझसे ख़्वाहिश की जाए और हर उस चीज़ का बख़्शने वाला है जिसका तेरे फ़ज़्ल से सवाल किया जाए तू हर उस शख़्स से क़रीब है जो तुझसे क़ुर्ब हासिल करना चाहे। इस महीने ने हमारे दरम्यान क़ाबिले सताइश दिन गुज़ारे और अच्छी तरह हक़्क़े रफ़ाक़त अदा किया और दुनिया जहान के बेहतरीन फ़ायदों से हमें मालामाल किया फिर जब उसका ज़माना ख़त्म हो गया मुद्दत बीत गई और गिनती तमाम हो गई तो वह हमसे जुदा हो गया। अब हम उसे रूख़सत करते हैं उस शख़्स के रूख़सत करने की तरह जिसकी जुदाई हम पर शाक़ हो और जिसका जाना हमारे लिये ग़मअफ़ज़ा और वहशतअंगेज़ हुआ और जिसके अहद व पैमान की निगेहदाश्त इज़्ज़त व हुरमत का पास और उसके वाजिबुल अदा हक़ से सुबुकदोशी अज़ बस ज़रूरी हो। इसलिये हम कहते हैं ऐ अल्लाह के बुज़ुर्गतरीन महीने, तुझ पर सलाम। ऐ दोस्ताने ख़ुदा की ईद तुझ पर सलाम। ऐ औक़ात में बेहतरीन रफ़ीक़ और दिनों और साअतों में बेहतरीन महीने तुझ पर सलाम। ऐ वह महीने जिसमें उम्मीद बर आती हैं और आमाल की फ़रावानी होती है, तुझ पर सलाम, ऐ वह हम नशीन के जो मौजूद हो तो उसकी बड़ी क़द्र व मन्ज़िलत होती है और न होने पर बड़ा दुख होता है और ऐ वह सरश्माए उम्मीद दरजा जिसकी जुदाई  अलम अंगेज़ है, तुझ पर सलाम। ऐ वह हमदम जो उन्स व दिलबस्तगी का सामान लिये हुए आया तो शादमानी का सबब हुआ और वापस गया तो वहशत बढ़ाकर ग़मगीन बना गया। तुझ पर सलाम। ऐ वह हमसाये जिसकी हमसायगी में दिल नर्म और गुनाह कम हो गए, तुझ पर सलाम। ऐ वह मददगार जिसने शैतान के मुक़ाबले में मदद व एआनत की, ऐ वह साथी जिसने हुस्ने अमल की राहें हमवार कीं तुझ पर सलाम। (ऐ माहे रमज़ान) तुझमें अल्लाह तआला के आज़ाद किये हुए बन्दे किस क़द्र ज़्यादा हैं और जिन्होंने तेरी हुरमत व इज़्ज़त का पास व लेहाज़ रखा वह कितने ख़ुश नसीब हैं, तुझ पर सलाम, तू किस क़द्र गुनाहों को महो करने वाला और क़िस्म क़िस्म के ऐबों को छिपाने वाला है। तुझ पर सलाम। तू गुनहगारों के लिये कितना तवील और मोमिनों के दिलों में कितना पुर हैबत है। तुझ पर सलाम। ऐ वह महीने जिससे दूसरे अय्याम हमसरी का दावा नहीं कर सकते, तुझ पर सलाम। ऐ वह महीने जो हर अम्र से सलामती का बाएस है तुझ पर सलाम। ऐ वह जिसकी हम नशीनी बारे ख़ातिर और मआशेरत नागवार नहीं, तुझ पर सलाम जबके तू बरकतों के साथ हमारे पास आया और गुनाहों की आलूदगियों को धो दिया, तुझ पर सलाम। ऐ वह जिसे दिल तंगी की वजह से रूख़सत नहीं किया गया और न ख़स्तगी की वजह से उसके रोज़े छोड़े गये तुझ पर सलाम। ऐ व हके जिसके आने की पहले से ख़्वाहिश थी और जिसके ख़त्म होने से क़ब्ल ही दिल रंजीदा हैं तुझ पर सलाम। तेरी वजह से कितनी बुराईयां हमसे दूर हो गईं और कितनी भलाइयों के सरचश्मे हमारे लिये जारी हो गये। तुझ पर सलाम (ऐ माहे रमज़ान)  तुझ पर और उस शबे क़द्र पर जो हज़ार महीनों से बेहतर है। सलाम हो, अभी कल हम कितने तुझ पर वारफ़ता थे और आने वाले कल में हमारे शौक़ की कितनी फ़रावानी होगी। तुझ पर सलाम। (ऐ माहे मुबारक तुझ पर) और तेरी उन फ़ज़ीलतों पर जिनसे हम महरूम हो गए और तेरी गुज़िश्ता बरकतों पर जो हमारे हाथ से जाती रहीं। सलाम हो ऐ अल्लाह हम उस महीने से मख़सूस हैं जिसकी वजह से तूने हमें शरफ़ बख़्शा और अपने लुत्फ़ व एहसान से इसकी हक़शिनासी की तौफ़ीक़ दी जबके बदनसीब लोग इसके वक़्त की (क़द्र व क़ीमत) से बेख़बर थे और अपनी बदबख़्ती की वजह से इसके फ़ज़्ल से महरूम रह गए। और तू ही वली व साहेबे इख़्तेयार है। के हमें इसकी हक़शिनासी के लिये मुन्तख़ब किया और इसके एहकाम की हिदायत फ़रमाई। बेशक तेरी तौफ़ीक़ से हमने इस माह में रोज़े रखे, इबादत के लिये क़याम किया मगर कमी व कोताही के साथ और मुश्ते अज़ ख़रवार से ज़्यादा न बजा ला सके। ऐ अल्लाह! हम अपनी बदआमाली का इक़रार और सहलअंगारी का एतराफ़ करते हुए तेरी हम्द करते हैं और अब तेरे लिये कुछ है तो वह हमारे दिलों की वाक़ेई शर्मसारी और हमारी ज़बानों की सच्ची माज़ेरत है, लेहाज़ा इस कमी व कोताही के बावजूद जो हमसे हमसे हुई है हमें ऐसा अज्र अता कर के हम उसके ज़रिये दिलख़्वाह फ़ज़ीलत व सआदत को पा सकें और तरह तरह के अज्र व सवाब के ज़ख़ीरे जिसके हम आरज़ूमन्द थे उसके एवज़ हासिल कर सकें। और हम ने तेरे हक़ में जो कमी व कोताही की है उसमें हमारे उज्ऱ को क़ुबूल फ़रमा और हमारी उम्रे आईन्दा का रिश्ता आने वाले माहे रमज़ान से जोड़ दे। और जब उस तक पहुंचा दे तो जो इबादत तेरे शायाने शान हो उसके बजा लाने पर हमारी एआनत फ़रमाना और इस इताअत पर जिसका वह महीना सज़ावार है अमल पैरा होने तौफ़ीक़ देना और हमारे लिये ऐसे नेक आमाल का सिलसिला जारी रखना के जो ज़मानाए ज़ीस्त के महीनों में एक के बाद दूसरे माह माहे रमज़ान में तेरे हक़ अदायगी का बाएस हों।

 

ऐ अल्लाह! हमने इस महीने में जो सग़ीरा या कबीरा मासीयत की हो, या किसी गुनाह से आलूदा और किसी ख़ता के मुरतकिब हुए हों जान बूझकर या भूले चौके, ख़ुद अपने नफ़्स पर ज़ुल्म किया हो या दूसरे का दामने हुरमत चाक किया हो। तू मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हमें अपने पर्दे में ढांप ले, और अपने अफ़ो व दरगुज़र से काम लेते हुए मुआफ़ कर दे। और ऐसा न हो के इस गुनाह की वजह से तन्ज़ करने वालों की आंखें हमें घूरें और तानाज़नी करने वालों की ज़बानें हम पर खुलें। और अपनी शफ़क़्क़ते बेपायां और मरहमत रोज़अफ़ज़ों से हमें इन आमाल पर कारबन्द कर के जो उन चीज़ों को बरतरफ़ करें और उन बातों की तलाफ़ी करें जिन्हें तु इस माह में हमारे लिये नापसन्द करता है।

 

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और इस महीने के रूख़सत होने से जो क़लक़ हमें हुआ है उसका चारा कर और ईद और रोज़ा छोड़ने के दिल हमारे लिये मुबारक क़रार दे और उसे हमारे गुज़रे हुए दिनों में बेहतरीन दिन क़रार दे जो अफ़ो व दरगुज़र को समेटने वाला और गुनाहों को महो करने वाला हो और तू हमारे ज़ाहिर व पोशीदा गुनाहों को बख़्श दे। बारे इलाहा! इस महीने के अलग होने के साथ तू हमें गुनाहों से अलग कर दे और इसके निकलने के साथ तू हमें बुराइयों से निकाल ले। और इस महीने की बदौलत उसको आबाद करने वालों में हमें सबसे बढ़कर ख़ुश बख़्त बानसीब और बहरामन्द क़रार दे। ऐ अल्लाह! जिस किसी ने जैसा चाहिये इस महीने का पास व लेहाज़ किया हो और कमा हक़्क़हू इसका एहतेराम मलहूज़ रखा हो और इसके एहकाम पर पूरी तरह अमलपैरा रहा हो। और गुनाहों से जिस तरह बचना चाहिये उस तरह बचा हो या ब नीयते तक़रूब ऐसा अमले ख़ैर बजा लाया हो जिसने तेरी ख़ुशनूदी उसके लिये ज़रूरी क़रार दी हो और तेरी रहमत को उसकी तरफ़ मुतवज्जेह कर दिया हो तो जो उसे बख़्शे वैसा ही हमें भी अपनी दौलते बेपायां में से बख़्श और अपने फ़ज़्ल व करम से इससे भी कई गुना ज़ाएद अता कर। इस लिये के तेरे फ़ज़्ल के सोते ख़ुश्क नहीं होते और तेरे ख़ज़ाने कम होने में नहीं आते बल्कि बढ़ते ही जाते हैं। और न तेरे एहसानात की कानें फ़ना होती है और तेरी बख़्शिश व अता तो हर लेहाज़ से ख़ुशगवारबख़्शिश व अता है।

 

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और जो लोग रोज़े क़यामत तक इस माह के रोज़े रखें या तेरी इबादत करें उनके अज्र व सवाब के मानिन्द हमारे लिये अज्र व सवाब सब्त फ़रमा। ऐ अल्लाह! हम उस रोज़े फ़ित्र में जिसे तूने अहले ईमान के लिये ईद व मसर्रत का रोज़ और अहले इस्लाम के लिये इज्तेमाअ व तआवुन का दिन क़रार दिया है हर उस गुनाह से जिसके हम मुरतकिब हुए हों और हर उस बुराई से जिसे पहले कर चुके हों और हर बुरी नीयत से जिसे दिल में लिये हुए हों उस शख़्स की तरह तौबा करते हैं जो गुनाहों की तरफ़ दोबारा पलटने का इरादा न रखता हो और न तौबा के बाद ख़ता का मुरतकिब होता हो। ऐसी सच्ची तौबा जो हर शक व शुबह से पाक हो। तो अब हमारी तौबा को क़ुबूल फ़रमा हमसे राज़ी व ख़ुशनूद हो जा और हमें इस पर साबित क़दम रख। ऐ अल्लाह! गुनाहों की सज़ा का ख़ौफ़ और जिस सवाब का तूने वादा किया है उसका शौक़ हमें नसीब फ़रमा ताके जिस सवाब के तुझसे ख़्वाहिशमन्द हैं उसकी लज़्ज़त और जिस अज़ाब से पनाह मांग रहे हैं उसकी तकलीफ़ व अज़ीयत पूरी तरह जान सकें। और हमें अपने नज़दीक उन तौबा गुज़ारों में से क़रार दे जिनके लिये तूने अपनी मोहब्बत को लाज़िम कर दिया है और जिनसे फ़रमाबरदारी व इताअत की तरफ़ रूजू होने को तूने क़ुबूल फ़रमाया है। ऐ अद्ल करने वालों में सबसे ज़्यादा अद्ल करने वाले।

 

ऐ अल्लाह! हमारे मां बाप और हमारे तमाम अहले मज़हब व मिल्लत ख़्वाह वह गुज़र चुके हों या क़यामत के दिन तक आईन्दा आने वाले हों सबसे दरगुज़र फ़रमा। ऐ अल्लाह! हमारे नबी मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर ऐसी रहमत नाज़िल फ़रमा जैसी रहमत तूने अपने मुक़र्रब फ़रिश्तों पर की है। और उन पर उनकी आल पर ऐसी रहमत नाज़िल फ़रमा जैसी तूने अपने फ़रस्तादा नबीयों पर नाज़िल फ़रमाई है। और उन पर और उनकी आल(अ0) पर ऐसी रहमत नाज़िल फ़रमा जैसी तूने अपने नेकोकार बन्दों पर नाज़िल की है। (बल्कि) इससे बेहतर व बरतर। ऐ तमाम जहान के परवरदिगार ऐसी रहमत जिसकी बरकत हम तक पहुंचे, जिसकी मनफ़अत हमें हासिल हो और जिसकी वजह से हमारी दुआएं क़ुबूल हों। इसलिये के तू उन लोगों से जिनकी तरफ़ रूजू हुआ जाता है, ज़्यादा करीम और उन लोगों से जिन पर भरोसा किया जाता है, ज़्यादा बेनियाज़ करने वाला है और उन लोगों से जिनके फ़ज़्ल की बिना पर सवाल किया जाता है, ज़्यादा अता करने वाला है और तू हर चीज़ पर क़ादिर व तवाना है।

 

أللَّهُمَّ يَا مَنْ لا يَرْغَبُ فِي الْجَزَاءِ، وَلاَ يَنْدَمُ عَلَى الْعَطَآءِ، وَيَا مَنْ لاَ يُكَافِئُ عَبْدَهُ عَلَى السَّوآءِ، مِنَّتُكَ ابْتِدَاءٌ، وَعَفْوُكَ تَفَضُّلٌ، وَعُقُوبَتُكَ عَـدْلٌ، وَقَضَاؤُكَ خِيَرَةٌ، إنْ أَعْطَيْتَ لَمْ تَشُبْ عَطَآءَكَ بِمَنٍّ، وَإنْ مَنَعْتَ لَمْ يَكُنْ مَنْعُكَ تَعَدِّيا تَشْكُرُ مَنْ شَكَرَكَ وَأَنْتَ أَلْهَمْتَهُ شُكْرَكَ، وَتُكَافِئُ مَنْ حَمِدَكَ وَأَنْتَ عَلَّمْتَهُ حَمْدَكَ، تَسْتُرُ عَلَى مَنْ لَوْ شِئْتَ فَضَحْتَهُ وَتَجُودُ عَلَى مَنْ لَوْ شِئْتَ مَنَعْتَهُ، وَكِلاَهُمَا أَهْلٌ مِنْكَ لِلْفَضِيحَةِ وَالْمَنْعِ، غَيْرَ أَنَّكَ بَنَيْتَ أَفْعَالَكَ عَلَى التَّفَضُّلِ، وَأَجْرَيْتَ قُدْرَتَكَ عَلَى التَّجَاوُزِ، وَتَلَقَّيْتَ مَنْ عَصَاكَ بِالحِلْمِ، وَأمْهَلْتَ مَنْ قَصَدَ لِنَفْسِهِ بِالظُّلْمِ تَسْتَنْظِرُهُمْ بِأناتِكَ إلى الإنَابَةِ وَتَتْرُكُ مُعَاجَلَتَهُمْ إلَى التَّوْبَةِ لِكَيْلاَ يَهْلِكَ عَلَيْكَ هَالِكُهُمْ، وَلا يَشْقَى بِنِعْمَتِكَ شَقِيُّهُمْ إلاَّ عَنْ طُولِ الإِعْذَارِ إلَيْهِ، وَبَعْدَ تَرَادُفِ الْحُجَّةِ عَلَيْهِ كَرَماً مِنْ عَفْوِكَ يَا كَرِيْمُ، وَعَائِدَةً مِنْ عَطْفِكَ يَا حَلِيمُ. إلَى عَفْوِكَ وَسَمَّيْتَهُ التَّوْبَـةَ، وَجَعَلْتَ عَلَى ذلِكَ البَابِ دَلِيلاً مِنْ وَحْيِكَ لِئَلاَّ يَضِلُّوا عَنْهُ فَقُلْتَ تَبَارَكَ اسْمُكَ : (تُوبُوا إلَى الله تَوْبَةً نَصُوحاً عَسَى رَبُّكُمْ أَنْ يُكَفِّـرَ عَنْكُمْ سَيِّئاتِكُمْ وَيُدْخِلَكُمْ جَنَّات تَجْرِي مِنْ تَحْتِهَا الأنْهَارُ يَوْمَ لاَ يُخْزِي اللهُ النَّبِيَّ وَالَّذِينَ آمَنُوا مَعَهُ نُورُهُمْ يَسْعَى بَيْنَ أَيْدِيهِمْ وَبِأَيْمَانِهِمْ يَقُولُونَ رَبَّنَا أَتْمِمْ لَنا نُورَنَا وَاغْفِرْ لَنَا إنَّكَ عَلَى كُلِّ شَيْء قَدِيرٌ) فَمَا عُذْرُ مَنْ أَغْفَلَ دُخُولَ ذلِكَ الْمَنْزِلِ بَعْدَ فَتْحِ الْبَابِ وَإقَامَةِ الدَّلِيْلِ، وَأَنْتَ الَّذِي زِدْتَ فِي السَّوْمِ عَلَى نَفْسِكَ لِعِبَادِكَ تُرِيدُ رِبْحَهُمْ فِي مُتَاجَرَتِهِمْ لَكَ، وَفَوْزَهُمْ بِالْوِفَادَةِ عَلَيْكَ وَالزِّيادَةِ مِنْكَ فَقُلْتَ تَبَارَكَ اسْمُكَ وَتَعَالَيْتَ: (مَنْ جَاءَ بِالْحَسَنَةِ فَلَهُ عَشْرُ أَمْثَالِهَا وَمَنْ جَاءَ بِالسَّيِّئَةِ فَلاَ يُجْزى إلاّ مِثْلَهَا) وَقُلْتَ: (مَثَلُ الَّذِينَ يُنْفِقُونَ أَمْوَالَهُمْ فِي سَبِيلِ الله كَمَثَلِ حَبَّة أَنْبَتَتْ سَبْعَ سَنَابِلَ فِي كُلِّ سُنْبُلَة مَائَةُ حَبَّة وَالله يُضَاعِفُ لِمَنْ يَشَاءُ) وَقُلْتَ: (مَنْ ذَا الَّذِيْ يُقْرِضُ الله قَرْضاً حَسَنَاً فَيُضَاعِفَهُ لَهُ أضْعَافاً كَثِيرَةً) وَمَا أَنْزَلْتَ مِنْ نَظَائِرِهِنَّ فِي الْقُرْآنِ مِنْ تَضَاعِيفِ الْحَسَنَاتِ، وَأَنْتَ الَّذِي دَلَلْتَهُمْ بِقَوْلِكَ مِنْ غَيْبِكَ وَتَرْغِيْبِكَ الَّذِي فِيهِ حَظُّهُمْ عَلَى مَا لَوْ سَتَرْتَهُ عَنْهُمْ لَمْ تُدْرِكْهُ أَبْصَارُهُمْ وَلَمْ تَعِـهِ أَسْمَاعُهُمْ وَلَمْ تَلْحَقْـهُ أَوْهَامُهُمْ فَقُلْتَ: (اذْكُرُونِي أَذْكُرْكُمْ وَاشْكُرُوا لِيْ وَلا تَكْفُرُونِ) وَقُلْتَ: (لَئِنْ شَكَـرْتُمْ لازِيدَنَّكمْ وَلَئِنْ كَفَـرْتُمْ إنَّ عَذابِيْ لَشَدِيدٌ) وَقُلْتَ : (ادْعُونِيْ أَسْتَجِبْ لَكُمْ إنَّ الَّذِينَ يَسْتَكْبِرُونَ عَنْ عِبَادَتِي سَيَدْخُلُونَ جَهَنَّمَ دَاخِرِينَ) فَسَمَّيْتَ دُعَاءَكَ عِبَادَةً، وَتَرْكَهُ اسْتِكْبَاراً، وَتَوَعَّدْتَ عَلَى تَرْكِهِ دُخُولَ جَهَنَّمَ دَاخِرِينَ، فَذَكَرُوكَ بِمَنِّكَ وَشَكَرُوكَ بِفَضْلِكَ، وَدَعَوْكَ بِأَمْرِكَ، وَتَصَدَّقُوا لَكَ طَلَباً لِمَزِيدِكَ، وَفِيهَا كَانَتْ نَجَاتُهُمْ مِنْ غَضَبِكَ، وَفَوْزُهُمْ بِرِضَاكَ، وَلَوْ دَلَّ مَخْلُوقٌ مَخْلُوقاً مِنْ نَفْسِهِ عَلَى مِثْلِ الَّذِيْ دَلَلْتَ عَلَيْهِ عِبَادَكَ مِنْكَ كَانَ مَوْصُوْفَاً بالإحْسَان وَمَنْعُوتاً بِالامْتِثَال ومحمُوداً بكلِّ لِسَان، فَلَكَ الْحَمْدُ مَا وُجِدَ فِي حَمْدِكَ مَذْهَبٌ، وَمَا بَقِيَ لِلْحَمْدِ لَفْظٌ تُحْمَدُ بِهِ وَمَعْنىً يَنْصَرفُ إلَيْهِ يَـا مَنْ تَحَمَّدَ إلَى عِبَـادِهِ بِالإِحْسَـانِ وَالْفَضْل، وَغَمَرَهُمْ بِالْمَنِّ وَالطَّوْلِ، مَا أَفْشَى فِيْنَا نِعْمَتَكَ وَأَسْبَغَ عَلَيْنَا مِنَّتَكَ، وَأَخَصَّنَا بِبِرِّكَ هَدْيَتَنَا لِدِيْنِكَ الَّـذِي اصْطَفَيْتَ، وَمِلَّتِـكَ الَّتِي ارْتَضَيْتَ، وَسَبِيلِكَ الَّذِي سَهَّلْتَ، وَبَصَّرْتَنَا الزُّلْفَةَ لَدَيْكَ وَالوُصُولَ إلَى كَـرَامَتِكَ. أللَّهُمَّ وَأَنْتَ جَعَلْتَ مِنْ صَفَـايَـا تِلْكَ الْوَظَائِفِ وَخَصَائِصِ تِلْكَ الْفُرُوضِ شَهْرَ رَمَضَانَ الَّذِي اخْتَصَصْتَهُ مِنْ سَائِرِ الشُّهُورِ، وَتَخَيَّرْتَهُ مِن جَمِيعِ الأزْمِنَةِ وَالدُّهُورِ، وَآثَرْتَهُ عَلَى كُلِّ أَوْقَاتِ السَّنَةِ بِمَا أَنْزَلْتَ فِيهِ مِنَ الْقُرْآنِ وَالنُّورِ، وَضَاعَفْتَ فِيهِ مِنَ الإيْمَانِ، وَفَرَضْتَ فِيْهِ مِنَ الصِّيَامِ، وَرَغَّبْتَ فِيهِ مِنَ القِيَامِ، وَأَجْلَلْتَ فِيهِ مِنْ لَيْلَةِ الْقَدْرِ الَّتِي هِيَ خَيْرٌ مِنْ أَلْفِ شَهْر، ثُمَّ آثَرْتَنَا بِهِ عَلَى سَائِرِ الأُمَمِ  وَاصْطَفَيْتَنَا بِفَضْلِهِ دُوْنَ أَهْلِ الْمِلَلِ، فَصُمْنَا بِأَمْرِكَ نَهَارَهُ، وَقُمْنَا بِعَوْنِكَ لَيْلَهُ مُتَعَرِّضِينَ بِصِيَامِهِ وَقِيَامِهِ لِمَا عَرَّضْتَنَا لَهُ مِنْ رَحْمَتِكَ، وَتَسَبَّبْنَا إلَيْـهِ مِنْ مَثُوبَتِكَ، وَأَنْتَ الْمَليءُ بِمَا رُغِبَ فِيهِ إلَيْكَ، الْجَوَادُ بِمـا سُئِلْتَ مِنْ فَضْلِكَ، الْقَـرِيبُ إلَى مَنْ حَـاوَلَ قُرْبَكَ، وَقَدْ أَقَامَ فِينَا هَذَا الشَّهْرُ مَقَامَ حَمْد وَصَحِبَنَا صُحْبَةَ مَبْرُور، وَأَرْبَحَنَا أَفْضَلَ أَرْبَاحِ الْعَالَمِينَ، ثُمَّ قَدْ فَارَقَنَا عِنْدَ تَمَامِ وَقْتِهِ وَانْقِطَاعِ مُدَّتِهِ وَوَفَاءِ عَدَدِهِ، فَنَحْنُ مُوَدِّعُوهُ وِدَاعَ مَنْ عَزَّ فِرَاقُهُ عَلَيْنَا وَغَمَّنَا وَأَوْحَشَنَا انْصِرَافُهُ عَنَّا وَلَزِمَنَا لَهُ الذِّمَامُ الْمَحْفُوظُ، وَالْحُرْمَةُ الْمَرْعِيَّةُ، وَالْحَقُّ الْمَقْضِيُّ، فَنَحْنُ قَائِلُونَ: السَّلاَمُ عَلَيْكَ يَا شَهْرَ اللهِ الأكْبَرَ، وَيَا عِيْدَ أَوْلِيَائِهِ. السَّلاَمُ عَلَيْكَ يَـا أكْرَمَ مَصْحُـوب مِنَ الأوْقَاتِ، وَيَا خَيْرَ شَهْر فِي الأيَّامِ وَالسَّاعَاتِ. السَّلاَمُ عَلَيْكَ مِنْ شَهْر قَرُبَتْ فِيهِ الآمالُ وَنُشِرَتْ فِيهِ الأَعْمَالُ. السَّلاَمُ عَلَيْكَ مِنْ قَرِين جَلَّ قَدْرُهُ مَوْجُوداً، وَأَفْجَعَ فَقْدُهُ مَفْقُوداً، وَمَرْجُوٍّ آلَمَ فِرَاقُهُ. السَّلاَمُ عَلَيْكَ مِنْ أَلِيف آنَسَ مُقْبِلاً فَسَرَّ وَأَوْحَشَ مُنْقَضِياً فَمَضَّ. السَّلاَمُ عَلَيْكَ مِنْ مُجَاوِر رَقَّتْ فِيهِ الْقُلُوبُ، وَقَلَّتْ فِيهِ الذُّنُوبُ. السَّلاَمُ عَلَيْكَ مِنْ نَاصِر أَعَانَ عَلَى الشَّيْطَانِ وَصَاحِب سَهَّلَ سُبُلَ الإحْسَانِ. أَلسَّلاَمُ عَلَيْكَ مَا أكْثَرَ عُتَقَاءَ اللهِ فِيكَ وَمَا أَسْعَدَ مَنْ رَعَى حُرْمَتَكَ بكَ!. أَلسَّلاَمُ عَلَيْكَ مَا كَانَ أَمْحَاكَ لِلذُّنُوبِ، وَأَسْتَرَكَ لأَِنْوَاعِ الْعُيُوبِ! أَلسَّلاَمُ عَلَيْكَ مَا كَانَ أَطْوَلَكَ عَلَى الْمُجْرِمِينَ، وَأَهْيَبَكَ فِي صُدُورِ الْمُؤْمِنِينَ! أَلسَّلاَمُ عَلَيْكَ مِنْ شَهْر لا تُنَافِسُهُ الأيَّامُ. أَلسَّلاَمُ عَلَيْكَ مِنْ شَهْر هُوَ مِنْ كُلِّ أَمْر سَلاَمٌ. أَلسَّلاَمُ عَلَيْكَ غَيْرَ كَرِيهِ الْمُصَاحَبَةِ وَلاَ ذَمِيمِ الْمُلاَبَسَةِ. أَلسَّلاَمُ عَلَيْكَ كَمَا وَفَدْتَ عَلَيْنَا بِالْبَرَكَاتِ، وَغَسَلْتَ عَنَّا دَنَسَ الْخَطِيئاتِ. أَلسَّلاَمُ عَلَيْكَ غَيْرَ مُوَدَّع بَرَماً وَلاَ مَتْرُوك صِيَامُهُ سَأَماً. أَلسَّلاَمُ عَلَيْكَ مِنْ مَطْلُوبِ قَبْلَ وَقْتِهِ وَمَحْزُون عَلَيْهِ قَبْلَ فَوْتِهِ. أَلسَّلاَمُ عَلَيْكَ كَمْ مِنْ سُوء صُرِفَ بِكَ عَنَّا وَكَمْ مِنْ خَيْر أُفِيضَ بِكَ عَلَيْنَا. أَلسَّلاَمُ عَلَيْـكَ وَعَلَى لَيْلَةِ الْقَدْرِ الَّتِي هِيَ خَيْرٌ مِنْ أَلْفِ شَهْر. أَلسَّلاَمُ عَلَيْكَ ما كَانَ أَحْرَصَنَا بِالأمْسِ عَلَيْكَ وَأَشَدَّ شَوْقَنَا غَدَاً إلَيْكَ. أَلسَلاَمُ عَلَيْكَ وَعَلَى فَضْلِكَ الَّذِي حُرِمْنَاهُ ، وَعَلَى مَاض مِنْ بَرَكَاتِكَ سُلِبْنَاهُ. أَللَّهُمَّ إنَّا أَهْلُ هَذَا الشَّهْرِ الِّذِي شَرَّفْتَنَا بِهِ وَوَفّقتَنَا بِمَنِّكَ لَهُ حِينَ جَهِلَ الاَشْقِيَا وَقْتَهُُ وَحُرِمُوا لِشَقَائِهِم فَضْلَهُ، أَنْتَ وَلِيُّ مَا اثَرْتَنَا بِهِ مِنْ مَعْرِفَتِهِ، وَهَدَيْتَنَا مِنْ سُنَّتِهِ، وَقَدْ تَوَلَّيْنَا بِتَوْفِيقِكَ صِيَامَهُ وَقِيَامَهُ عَلى تَقْصِير، وَأَدَّيْنَا فِيهِ قَلِيلاً مِنْ كَثِيـر. اللَّهُمَّ فَلَكَ الْحمدُ إقْـرَاراً بِـالإسَاءَةَ وَاعْتِرَافاً بِالإضَاعَةِ، وَلَك مِنْ قُلُوبِنَا عَقْدُ النَّدَمِ، وَمِنْ أَلْسِنَتِنَا صِدْقُ الاعْتِذَارِ، فَاْجُرْنَا عَلَى مَا أَصَابَنَا فِيهِ مِنَ التَّفْرِيطِ أَجْرَاً نَسْتَدْركُ بِهِ الْفَضْلَ الْمَرْغُوبَ فِيهِ، وَنَعْتَاضُ بِهِ مِنْ أَنْوَاعِ الذُّخْرِ الْمَحْرُوصِ عَلَيْهِ ، وَأَوْجِبْ لَنَا عُذْرَكَ عَلَى مَا قَصَّرْنَا فِيهِ مِنْ حَقِّكَ، وَابْلُغْ بِأَعْمَارِنَا مَا بَيْنَ أَيْديْنَا مِنْ شَهْرِ رَمَضَانَ الْمُقْبِلِ، فَإذَا بَلَّغْتَنَاهُ فَأَعِنَّا عَلَى تَنَاوُلِ مَا أَنْتَ أَهْلُهُ مِنَ الْعِبَادَةِ وَأَدِّنَا إلَى الْقِيَامِ بِمَا يَسْتَحِقُّهُ مِنَ الطَّاعَةِ وَأجْرِ لنا مِنْ صَالِحِ العَمَلِ مَا يَكون دَرَكاً لِحَقِّكَ فِي الشَّهْرَيْنِ مِنْ شُهُورِ الدَّهْرِ. أللَّهُمَّ وَمَا أَلْمَمْنَا بِهِ فِي شَهْرِنَا هَذَا مِنْ لَمَم أَوْ إثْم، أَوْ وَاقَعْنَا فِيهِ مِنْ ذَنْبِ وَاكْتَسَبْنَا فِيهِ مِنْ خَطِيئَة عَلَى تَعَمُّد مِنَّا أو عَلى نِسيانٍ ظَلَمنا فيه أنفُسَنا أَوِ انْتَهَكْنَا بِهِ حُرْمَةً مِنْ غَيْرِنَا فَصَلِّ عَلَى مُحَمَّد وَآلِهِ وَاسْتُرْنَا بِسِتْرِكَ، وَاعْفُ عَنَّا بِعَفْوِكَ، وَلاَ تَنْصِبْنَا فِيهِ لاِعْيُنِ الشَّامِتِينَ، وَلاَ تَبْسُطْ عَلَيْنَا فِيهِ أَلْسُنَ الطَّاعِنينَ، وَاسْتَعْمِلْنَا بِمَا يَكُونُ حِطَّةً وَكَفَّارَةً  لِمَا أَنْكَرْتَ مِنَّا فِيهِ بِرَأْفَتِكَ الَّتِي لاَ تَنْفَدُ، وَفَضْلِكَ الَّذِي لا يَنْقُصُ. أللَّهُمَّ صَلِّ عَلَى مُحَمَّد وَآلِهِ وَاجْبُرْ مُصِيبَتنَا بِشَهْرِنَا وَبَارِكْ فِي يَوْمِ عِيْدِنَا وَفِطْرِنَا وَاجْعَلْهُ مِنْ خَيْرِ يَوْم مَرَّ عَلَيْنَا أَجْلَبِهِ لِعَفْو، وَأَمْحَاهُ لِذَنْبِ، وَاغْفِرْ لَنا ما خَفِيَ مِنْ ذُنُوبِنَا وَمَا عَلَنَ. أللَّهُمَّ اسلَخْنَا بِانْسِلاَخِ هَذَا الشَّهْرِ مِنْ خَطَايَانَا وَأَخْرِجْنَا بُخُرُوجِهِ مِنْ سَيِّئاتِنَا وَاجْعَلْنَا مِنْ أَسْعَدِ أَهْلِهِ بِهِ وَأَجْزَلِهِمْ قِسَمَاً فِيـهِ وَأَوْفَـرِهِمْ حَظّاً مِنْـهُ. أللّهُمَّ وَمَنْ رَعَى حَقّ هَذَا الشَّهْرِ حَقَّ رِعَايَتِهِ وَحَفِظَ حُرْمَتَهُ حَقَّ حِفْظِهَا وَقَامَ بِحُدُودِهِ حَقَّ قِيَامِهَا، وَأتَّقَى ذُنُوبَهُ حَقَّ تُقَاتِهَا أَوْ تَقَرَّبَ إلَيْكَ بِقُرْبَة أَوْجَبَتْ رِضَاكَ لَهُ وَعَطَفَتْ رَحْمَتَكَ عَلَيْهِ، فَهَبْ لَنَا مِثْلَهُ مِنْ وُجْدِكَ وَأَعْطِنَا أَضْعَافَهُ مِنْ فَضْلِكَ فَإنَّ فَضْلَكَ، لا يَغِيْضُ وَإنَّ خَـزَائِنَكَ لا تَنْقُصُ، بَـلْ تَفِيضُ وَإنَّ مَعَـادِنَ إحْسَانِكَ لا تَفْنَى، وَإنَّ عَطَاءَكَ لَلْعَطَآءُ الْمُهَنَّا، أللَّهُمَّ صَلِّ عَلَى مُحَمَّد وَآلِهِ وَاكْتُبْ لَنَا مِثْلَ أجُورِ مَنْ صَامَهُ أَوْ تَعَبَّدَ لَكَ فِيْهِ إلَى يَوْمِ الْقِيَامَةِ. أللَّهُمَّ إنَّا نَتُوبُ إلَيْكَ فِي يَوْمِ فِطْرِنَا الّذِي جَعَلْتَهُ لِلْمُؤْمِنِينَ عِيداً وَسُـرُوراً. وَلأِهْلِ مِلَّتِكَ مَجْمَعاً وَمُحْتشداً مِنْ كُلِّ ذَنْب أَذْنَبْنَاهُ، أَوْ سُوْء أَسْلَفْنَاهُ، أَوْ خَاطِرِ شَرٍّ أَضْمَرْنَاهُ، تَوْبَةَ مَنْ لاَ يَنْطَوِيْ عَلَى رُجُوع إلَى ذَنْب وَلا يَعُودُ بَعْدَهَا فِي خَطِيئَة، تَوْبَةً نَصوحاً خَلَصَتْ مِنَ الشَّكِّ وَالارْتِيَابِ، فَتَقَبَّلْهَا مِنَّا وَارْضَ عَنَّا وَثَبِّتنَا عَلَيْهَا. أللَّهُمَّ ارْزُقْنَا خَوْفَ عِقَابِ الْوَعِيدِ، وَشَوْقَ ثَوَابِ الْمَوْعُودِ حَتّى نَجِدَ لَذَّةَ مَا نَدْعُوكَ بِهِ،وكَأْبَةَ مَا نَسْتَجِيْرُكَ مِنْهُ، وَاجْعَلْنَا عِنْدَكَ مِنَ التَّوَّابِيْنَ الَّذِينَ أَوْجَبْتَ لَهُمْ مَحَبَّتَكَ، وَقَبِلْتَ مِنْهُمْ مُرَاجَعَةَ طَاعَتِكَ، يَا أَعْدَلَ الْعَادِلِينَ.أللَّهُمَّ تَجَاوَزْ عَنْ آبآئِنَا وَأُمَّهَاتِنَا وَأَهْلِ دِيْنِنَا جَمِيعاً مَنْ سَلَفَ مِنْهُمْ وَمَنْ غَبَرَ إلَى يَوْمِ الْقِيَامَةِ. أللَّهُمَّ صَلِّ عَلَى مُحَمَّد نَبِيِّنَا وَآلِهِ، كَمَا صَلَّيْتَ عَلَى مَلائِكَتِكَ الْمُقَرَّبِينَ. وَصَلِّ عَلَيْهِ وَآلِهِ، كَمَا صَلَّيْتَ عَلَى أَنْبِيَائِكَ الْمُرْسَلِينَ، وَصَلِّ عَلَيْهِ وَآلِهِ، كَمَا صَلَّيْتَ عَلَى عِبَادِكَ الصَّالِحِينَ، وَأَفْضَلَ مِنْ ذَلِكَ يَا رَبَّ الْعَالَمِينَ، صَلاَةً تَبْلُغُنَا بَرَكَتُهَا، وَيَنَالُنَا نَفْعُهَا، وَيُسْتَجَابُ لَهَا دُعَاؤُنَا، إنَّكَ أكْرَمُ مَنْ رُغِبَ إلَيْهِ وَأكْفَى مَنْ تُوُكِّلَ عَلَيْهِ وَأَعْطَى مَنْ سُئِلَ مِنْ فَضْلِهِ، وَأَنْتَ عَلَى كُلِّ شَيْء قَدِيرٌ.

 

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