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हम अर'बईन क्यों मनाते हैं?
अर'बईन का महत्त्व और ज़्यारते अर'बईन पढ़ने का सवाब : इमाम हसन अल-अस्करी (अ:स) फरमाते हैं : ज़्यारते अर'बईन पढ़ना मोमिन की पांच अलामतों में से एक है! ज़्यारत के इलावा 51 रक्अत नमाज़ भी पढ़नी चाहिए, जिसमे बिबिल्लाह को बुलंद आवाज़ में कहना चाहिए, दाहिने हाथ की उंगली में अंगूठी पहनना चाहिए, और ख़ाक पर सजदा करना चाहिए (यह हदीस शेख़ तुसी की किताब "तहजीब" से नकल की गयी है) ज़्यारते अर'बईन के पढ़ने को और अर'बईन के दिन धार्मिक किर्या को इतना महत्त्व क्यों दिया गया है? ज़्यारत, जैसा हम सभी जानते हैं, के मतलब मुलाक़ात या अपनी उपस्थिती देने के हैं, जिसका सार है की इस क्रिया से हम अपने इमामों से या बात-चीत करते हैं या उनको अपनी उपस्थिति बताते हैं! बेशक ज़्यारत की शारीरिक अभिव्यक्ति का महत्त्व वास्तविकता में कर्बला में पेश होकर इमाम की ज़्यारत का है लेकिन हर मोमिन के लिए यह संभव नहीं है! तो क्या कर्बला में न रह कर ज़्यारत का सवाब इतना ही है या कम हो जाता है? हमें हदीस बताती हैं की कर्बला से दूर रह कर भी ज़्यारत का उतना ही सवाब और फायेदा है जितना कर्बला में रह कर है, यह उस समय संभव है जब हम इमाम (अ:स) की स्थिति को अच्छी तरह समझते और जानते हैं और उनका अनुकरण करना चाहते हैं! इमाम मुहम्मद अल-बाक़र (अ:स) फरमाते हैं, " आकाश इमाम हुसैन (अ:स) पर 40 रोज़ तक रोता रहा, जब उदय हुआ तो लाल था, जब डूबा तो भी लाल था! जब हम इमाम (अ:स) को 40 दिन तक याद करते हैं तो हम आज्ञा पालन की प्रतिज्ञा और उन से वफादारी को फिर से सुनिश्चित करते हैं, "मै गवाही देता हूँ की आप मेरे इमाम हैं, जो सही रास्ते पर हैं, जो पवित्र हैं, जिनसे अल्लाह राज़ी है, जो शुद्ध हैं, जो मार्गदर्शक हैं और जिनका मार्गदर्शन भगवान् ने किया है! मै गवाही देता हूँ की आप ने अल्लाह से की गयी प्रतिज्ञा को निभाया और अपने रास्ते में संघर्ष किया....हम उन सबके दोस्त है जो आपका दोस्त है!" ज्यारते अर'बईन पढ़ने में, हम यह प्रतिज्ञा करते हैं की हम उनके बताये हुए रास्ते पर चलेंगे जो सच्चाई और न्याय का रास्ता है और हर उस रास्ते को जो अन्याय का है उसे ठुकरा देंगे और अपनी आवाज़ दमनकारी शासक के ख़िलाफ़ ज़रूर उठाएंगे! हम उनके दुश्मन हैं जो उनका (इमाम का) दुश्मन है संक्षेप में, हम यह वचन देते हैं की हम अपनी ज़िंदगी को इमाम (अ:स) के सिखाये हुए तरीके से मोड़ लेंगे लेकिन ऐसा क्यों है की हम इमाम (अ:स) को 40 दिन तक याद करते हैं और उनका शोक मनाते हैं फिर ज़िंदगी में आगे बढ़ जाते हैं? हमारे पैगंबर (स:अ:व:व) ने कहा, "ज़मीन एक मोमिन का 40 दिन तक ग़म मनाती है! इसलिए यह पता चलता है की मरने वाले को 40 दिन तक याद रखना चाहिए और उसका शोक मानना चाहिए! 40 दिन की निरंतर अवधि को एक आदत नहीं बना कर मानना चाहिए बल्कि इसको जीवन का अभ्यास समझ कर इससे सीखी हुई अच्छी बात को जीवन भर अपने ज़िंदगी में लाना चाहिए! अगर हम इस बात का अध्ययन करें तो पायेंगे की मनोवैज्ञानिक और व्यवहारवादी कहते हैं की किसी मानव में अपने आप को बदलने के लिए लगभग ६ हफ्ते का समय लगता है! अगर इसी को हम दिन में बदले तो लगभग 42 दिन होते हैं, जो चालीस दिन के अतीनिकट है! किताब 40 डेज़ टू पर्सनल रीवोलूशन : ए ब्रेकथ्रू प्रोग्राम टू रैडीकली चेंज योर बौडी एंड अवेकेंन दी सेक्रेड विदीन योर सोल, जिसके लेखक बैरोन बैप्टिस्ट हैं, वोह ४० दिन का महत्त्व इस तरह दर्शित करते हैं, " 40 दिन क्यों? क्योंकि 40 नंबर परिवर्तन के दायरे में जबरदस्त आध्यात्मिक महत्व रखती है! यीशु 40 दिन तक जंगल में भटकते रहे ताकि उन्हें शुद्धिकरण का अनुभव हो जाए, वोह स्वयं को और अपने अभियान समझ जाएँ ! मूसा अपने पवित्र भूमि पहुँचने से पहले अपने लोगों के साथ 40 साल तक रेगिस्तान में भटकते रहे! नूह अपने आप को संरक्षित और पवित्र रखने के लिए 40 दिन और चालीस रात तक नौकयायन करते रहे! कब्बालाह के अनुसार, प्राचीन यहूदी रहस्यवादी पाठ, हमारे अपने अन्दर कोई भी नया तरीका जमाने में 40 दिन लग जाते हैं!......." कोई भी दुआ 40 दिन तक पढ़ने को हमारी प्रथा में भी शामिल है! कहा जाता है की 40 की दहाई बहुत ही प्रभावशाली है! अगर कोई दुआ 40 बार पढी जाए, या 40 लोग इसे मिलकर पढ़ें, या 40 दिनों तक इसे पढ़ा जाए तब इसकी प्रभाव बहुत बढ़ जाता है! इमाम जाफर अल-सादिक़ (अ:स) के ज़रिया से बताया जाता है की जो भी दुआ-अहद सुबह की नमाज़ के बाद 40 दिनों तक लगातार पढेगा, वोह इमामे ज़माना (अ:स) के मददगारों में से होगा! लगातार 40 जुमारात को इमाम हुसैन (अ:स) के रौज़े और "मस्जिदे-सहला" पर जाने को भी बहुत सलाह दी गयी है, और कहा गया है की यह कार्य इमामे ज़माना (अ:स) का ज़हूर की भी प्रतिज्ञा करता है! इस प्रकार, हम जब भी ज़्यारते अर'बईन पढ़ते हैं और अर'बईन का दिन इमाम के शोक के रूप में मनाते हैं, हम यह दुआ करते हैं और उम्मीद करते हैं की यह 40 दिन जो हम ने इमाम (अ:स) के ग़म में बिताये हैं हमारे अन्दर ऐसा परिवर्तन लाएगा जिस कारण हम इमाम हुसैन (अ:स) के द्वारा सिखाये हुए मार्ग पर चल सकेंगे और उनके सन्देश को आगे बढाते रहेंगे जो न्याय, सच्ची श्रद्धा और त्याग की प्रबल भावना पर आधारित है! हवाला :
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